कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
पाषाण-गाथा
नदी पार करने के पश्चात हल्की-सी चढ़ाई थी और उसके बाद यह दूसरी दुनिया। घने वनों के बीच बिछी हरी चादरें। ओर-छोर का कहीं पता ही नहीं चल पाता।
अभी गर्मी आरंभ नहीं हुई थी, फिर भी गेहूं के बित्ते-भर ऊंचे पौधे हवा में लहलहा रहे थे। किसी ने बतलाया-ये नई किस्म के पौधे हैं, इससे ऊंचे नहीं जाते। जितना लंबा डंठल है, उतनी ही लंबी बाल भी लगती है।
उस पार आसमान की ओर उभरी एक नीली, धुंधली रेखा साफ दिखलाई दे रही थी-पर्वतों की माला।
सामने कतार में झोंपड़ीनुमा कच्चे घर थे-घास-फूस के। अब याद नहीं, उनकी छतें टीन की चादरों से ढकी थीं या घास-पुआल से। इतने लंबे वक्फे में तो बहुत-सी बातें यों ही धुंधला जाती हैं।
हां, जब हम वहां पहुंचे तो अजीब-सा लग रहा था। एक ऊंचा-सा काला शेड दाहिनी तरफ खड़ा था-वर्कशाप जैसा। काले कपड़े पहने कुछ मज़दूर काम में जुटे थे। कहीं भट्टी में गर्म लोहा तप रहा था। घन की भरपूर चोट से तपते लोहे को निश्चित आकार दिया जा रहा था। कुछ मज़दूर लोहे के भारी शहतीर को उठाने का असफल प्रयास कर रहे थे। वहां शोरगुल कुछ अधिक था।
धुएं के साथ-साथ धूल थी। उड़ती हुई रेत इतनी अधिक कि देर तक ठहर पाना कठिन लग रहा था।
तभी सामने अधेड़ उम्र का एक आदमी आया। उसकी घनी मूंछे डरावनी लग रही थीं। भौंह के काले बाल गुच्छे की तरह गुथे हुए।
‘फारम का काम करने वाला अउजार हम अपनेई ठीक कै लेइत हैं।" उसने कहा।
"कब से हैं यहां?" मैंने पूछा। तिन साल एहि चैत मा पूरा होई जाई।”
"रहने वाले कहां के हैं?"
"सुल्तानपुर कै।”
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